वास्तविक जरूरतमंद लालची नहीं होता

वास्तविक जरूरतमंद लालची नहीं होता



आज सुबह उठते ही जब न्यूज़ पेपर देखा तो भास्कर के साथ आये साप्ताहिक प्रकाशन मधुरिमा के मुख्य आलेख पर नजर गई। मनोज शर्मा द्वारा लिखा ये लेख पढ़कर इसे शेयर करने से अपने आपको रोक नही पाया। न्यूज़पेपर गांधी जयंती के अवसर पर 2 से 8 अक्टूबर तक "जॉय ऑफ गिविंग वीक" मना रहा है। इसी के अंतर्गत यह लेख और साथ में एक प्रेरणाप्रद स्टोरी भी प्रकाशित की गई। लेखक के प्रथम पेरे में भारतीय संस्कृति में देने के सुख को परिभाषित करते हुए लिखा है कि घर में बनने वाली पहली रोटियां गौ माता, कुत्ते और मेहमानों के लिए निकाली जाती थी। और उसके बाद परिवार के सदस्यों और अंत में स्वयं का नंबर आता था। भारतीय संस्कृति में परिवार ही पाठशाला माना जाता था गुरु की भूमिका में दादी और मां या परिवार की कोई स्त्री होती थी। यहीं से व्यक्ति देने के बारे में सोचता था। इस भाव के विकास के सामाजिक ही नहीं मनोवैज्ञानिक पहलू भी हैं यहां एक दिलचस्प तथ्य पर गौर करें। आमतौर पर धारणा है कि जब व्यक्ति आध्यात्मिक होता है तो उसमें प्रेम समर्पण करुणा और देने के भाव विकसित होने लगते हैं। जबकि असल में होता यह है कि जब किसी व्यक्ति में देने का गुण विकसित होता है तो वह आध्यात्मिक होने लगता है। तभी वह सही अर्थों में मनुष्य या इंसान कहलाने का अधिकारी बनता है। सभी दार्शनिक मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक गुरु देने के भाव को प्रेम का अनिवार्य लक्षण मानते हैं।


आलेख में मनोज शर्मा ने एक छोटी सी कहानी प्रस्तुत करते हुए लिखा कि एक साधु ने एक गृहस्थ को सोने का एक टुकड़ा दिया। साधु ने लोहे के टुकड़े को एक पत्थर से छुआ तो वह सोने में बदल गया। गृहस्थ ने वह पत्थर ही मांग लिया और साधु ने बड़े सहज भाव से दे भी दिया। गृहस्थ को लगा कि से जमाने की दौलत मिल गई। तभी उसने देखा कि साधु का चेहरा सोने से भी ज्यादा दमक रहा है। अचानक उसने ने वह पत्थर लौटा दिया उसने कहा मुझे ज्यादा कीमती चीज चाहिए और वह देने का भाव जिसके चलते आपने पारस पत्थर देने में भी एक पल नहीं लगाया। 


मनोज शर्मा आलेख में आगे लिखते हैं की देने का भाव, देने की क्रिया से अलग है। इससे इस तरह समझे कि आमिर अपने धन का एक अतिरिक्त पैसा देता है तो यह क्रिया है लेकिन एक गरीब व्यक्ति अपने हिस्से की रोटी दूसरों के सामने बढ़ाता है तो इसमें देने का वास्तविक भाव होता है। भगवान जब वेश धरकर हमारी परीक्षा लेना आते हैं तो वह इसी भाव को परखते हैं। सीधी भाषा में बोले तो इससे दिल बड़ा होना कहते हैं। देने की इस भाव में सोच विचार नहीं है , योजना नहीं है, हानि और लाभ का गुणा भाग नहीं है। संपूर्ण प्रकृति इस भाव से भरी हुई हैं। सूर्य बिना शर्त के प्रकाश ऊर्जा दे रहा है। इसी प्रकृति का एक हिस्सा होने के नाते यह भाव हमारे भीतर भी विद्यमान है। लेकिन स्वार्थ जैसी कमजोरी के चलते कहीं गहरे दबा है। उसे खोदकर निकालिए।


कई बार हम सोचते हैं कि हमारे पास तो देने को कुछ है ही नहीं। जबकि इसका हमारे पास कुछ होने या ना होने से कोई संबंध नहीं है। यह भाव हैं ना की कोई वस्तु। यह व्यक्ति को सकारात्मक बनाता है। इस बार दशा में वह शिकायत ही प्रकृति का नहीं हो सकता क्योंकि उसकी कोई मांग नहीं है बल्कि वह तो देने को तत्पर हैं।


इस लेख के साथ संपादक ने एक प्रेरणाप्रद स्टोरी साझा करते हुए लिखते हैं कि वास्तविक जरूरतमंद लालची नहीं होता है। उनके द्वारा दी गई यह स्टोरी शायद आपने कहीं फेसबुक या व्हाट्सएप पर पढ़ी हो फिर भी उससे यहां पर  से देना उचित हैं। कहानी कुछ इस प्रकार है कि सड़क से गुजरते एक आदमी ने देखा बिजली के खंभे पर कोई कागज चिपका हुआ है। उस पर आज से कुछ लिखा हुआ था उसने पास जाकर देखा तो कागज पर एक सूचना दर्ज थी- 


मैं एक बुजुर्ग महिला हूं। मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता है। इस रास्ते पर कल मेरा 1:50 का नोट गुम हो गया था। जिस किसी सज्जन को मिले कृपया नीचे दिए पते पर पहुंचा सकते हैं। 


नीचे घर का पता लिखा था जो कि पास ही स्थित था । उस आदमी ने कुछ सोचा वह दिशा में मोड़ गया। पता है जर्जर घर का था। उसने आवाज लगाई तो एक वृद्धा लाठी के सहारे बहार आई। उस व्यक्ति ने कहा कि मुझे आपका 50 का नोट मिला था सूचना पढ़कर लौटाने आया हूं।


यह सुनकर बुढ़िया रोने लगी। बोली किसी ने मेरी सहायता के उद्देश्य वह कागज चिपका दिया था। आज सुबह से 70-80 लोग मुझे 50-50 रुपए लौटा चुके हैं। उस आदमी के बहुत कहने पर दाने पैसे तो रख लिए परंतु उससे वादा भी ले लिया कि वह उस कागज को फाड़ देगा। हालांकि उसने कागज नहीं फाड़ा। 


कहानी बताती है कि संसार में देने वाले कम नहीं है। वृद्धा का आचरण दिखाता है कि वास्तविक जरूरतमंद लालची नहीं होता। जरूरत का मिल जाने के बाद वह संग्रह के लिए नहीं  मांगता। यह सुपात्र की पहचान है कि वह लालची नहीं होता। 


हमारी संस्कृति देने की रही हैं। हम देने में ज्यादा खुश होते हैं। इसके साथ ही एक खबर विचलित कर देने वाली दैनिक जन टाइम्स के पेज नंबर 2 पर प्रकाशित हुई। इसमें वर्तमान के समाज की स्थिति का स्याह पहलू  देखने को मिलता है। खबर है कि एक 8 वर्षीय बच्चे की भूख से तड़पकर मौत हो गई। परिवार को कई दिनों से खाना नसीब नहीं हुआ। मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले से आई इस खबर ने पूरी तरह से विचलित कर दिया। अमूमन थाली में जब खाना बस जाता है तो कहीं बाहर हम अफसोस किए बिना ही इसे कूड़ेदान में फेंक देते हैं। उस समय हमारे दिमाग में बिल्कुल भी इस बात का एहसास नहीं होता है कि कोई ऐसा भी है जिसे एक वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है। हमारे देश में अभी भी एक तबका ऐसा है जो कूड़े से भिन्न कर रोटी खाने को मजबूर हैं। भूख के कारण हर दिन कोई न कोई दम तोड़ रहा है ऐसा ही एक दान करने वाला वाक्य मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले से आया है। मध्य प्रदेश देश का वह प्रदेश जहां पर सबसे ज्यादा खाद्यान्न का उत्पादन होता है लाखों टन अनाज गोदामों में पड़ा पड़ा सड़ जाता है। ऐसे में एक बच्चे का बुक से तड़प कर मर जाना कई सवालों को छोड़ जाता है। बच्चे के परिवार के अन्य 5 सदस्यों को अस्पताल में भर्ती कराया गया । परिजनों की मेडिकल जांच में डायरिया होने की बात सामने आई है। डॉक्टरों का कहना है कि ऐसा मालूम हो रहा है कि कई दिनों से इस परिवार ने कुछ खाया नहीं है। मामले के सामने आते ही प्रदेश सरकार और प्रशासन पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। पीड़ित परिवार के किसान ने बताया कि यह बिहारी मजदूर हैं। परिजनों ने सरकार पर आरोप लगाते हुए यह भी बताया कि योजना का लाभ गरीब मजदूरों तक नहीं पहुंच पा रहा हैं पुलिस टॉप बड़वानी जिले के एसडीएम अंशु जावला भी मानते हैं कि प्रथम दृष्टि से यह प्रतीत होता है कि परिवार ने पिछले कई दिनों से कुछ खाया नहीं है।  अब प्रश्न यह है कि इसके पीछे कौन जिम्मेदार हैं हमारा समाज या प्रशासन जो लाखो टन अनाज गोदामों में सड़ा देता है। कहने को तो गरीबों को ₹1 किलो अनाज व ₹2 किलो चावल की योजना प्रदेश में पिछली सरकारों द्वारा भी चलाई गई। वर्तमान सरकार में भी यह योजना सुचारू रूप से जारी है बावजूद इसके किसी परिवार के बुक से मर जाने का वाक्य सरकार और समाज के सिर पर काला दाग हैं। 


इसी खबर के पास जन टाइम्स में प्रकाशित खबर प्रदेश के मुखिया कमलनाथ की दरियादिली को दर्शाती हैं। खबर हैं कि एक बच्ची ने मंदिर की दान पेटी से 250₹ चुरा लिए। इसकी खबर पुलिस को की गई। पूछताछ में बच्ची ने बताया कि उसने ये पैसे 10 किलो गेंहू खरीदने के लिए चुराये थे। जब मुख्यमंत्री कमलनाथ को इसका पता चला तो उन्होंने बालिका को छोड़ने के आदेश देने के साथ 1 लाख रुपये की तत्काल सहायता उस बच्ची को देने का निर्देश दिया। 


इन दोनों खबरें समाज का चरित्र चित्रण करती सी प्रतीत होती है। 


इसके बीच एक खबर प्रसन्न कर देने वाली यह है कि उज्जैन की एक धार्मिक, सामाजिक एवं राष्ट्रवाद के कार्यों में तत्पर संस्था स्वर्णिम भारत मंच ने वृद्ध जो अकेले रहते हैं के लिए निशुल्क भोजन पहुंचाने की व्यवस्था की गई। संस्था के संयोजक दिनेश श्रीवास्तव ने बताया की हमारे द्वारा ऐसे बुजुर्ग जो चलने फिरने में लाचार होने के साथ-साथ अकेले अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं या किसी कारण से अपने बेटे बहू या परिवार से दूर हैं। ऐसे वृद्धों के लिए हमारी संस्था द्वारा एक फोन पर निशुल्क भोजन उपलब्ध कराने जा रही हैं। जब श्री दिनेश श्रीवास्तव जी से पूछा गया कि यह योजना संभ्रांत वृद्धों के लिए हैं या फिर सभी वर्ग के वृद्धों के लिए हैं। श्री दिनेश जी ने विनम्र भाव से बताया कि हमारी संस्था किसी प्रकार के ऊंच-नीच, गरीब- अमीर का भेदभाव किए बिना सभी को एक समय का भोजन निशुल्क उपलब्ध कराएगी। हम इसके लिए कृत संकल्पित हैं।