संविधान के सनातन स्तंभ
देशभर में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में लोग सड़कों पर संविधान की किताब, बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की तस्वीर और तिरंगा लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इस दलील के साथ कि मौजूदा केंद्र सरकार भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के रास्ते पर ले जा रही है। क्या वाकई भारत का संविधान हिन्दू धर्म से निरपेक्ष होकर बनाया गया था? क्या हिन्दू सनातन प्रतीकों और मान बिन्दुओं से हमारा संविधान उस प्रतिक्रियावादी दूरी को बनाकर चलता है जैसा शाहीन बाग या जेएनयू और एमएमयू के आंदोलनकारियों के प्रलाप में सुनाई देता है। इस सवाल को सेक्यूलरिज्म के आलोक में विश्लेषित किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि मूल संविधान की इबारत में तो यह अवधारणा कहीं थी ही नहीं। इसे तो 1976 में प्रस्तावना में जोड़ा गया है। यहां सवाल उठाया जाना चाहिये कि जिस दलित चेतना के नाम पर अक्सर संविधान को बाबा साहब अंबेडकर की अस्मिता के साथ जोड़ा जाता है क्या उसके साथ बुनियादी खिलवाड़ 1976 में ही नहीं हो गया? यह भय अक्सर दिखाया जाता रहा है कि कतिपय मनुवादी तत्व बाबा साहब के बनाये संविधान को बदलना चाहते हैं लेकिन कभी इस विमर्श को नहीं खड़ा किया जाता कि मूल संविधान के साथ बुनियादी छेड़छाड़ क्यों और किस मानसिकता के साथ 1976 में की गई? मौलिक रूप से भारत का संविधान उस हिन्दू जीवन दृष्टि से गणराज्यीय तंत्र को दूर रहने की हिदायत देता है?

अगर हम मूल संविधान के पन्नों को पलटते हैं तो हमें उसमें सुविख्यात चित्रकार नन्दलाल बोस की कूची से बनाये हुए कुल 22 चित्र नजर आते हैं। इन चित्रों के आधार पर समझा जा सकता है कि हमारे संविधान निर्माताओं के मन और मस्तिष्क में कैसा आदर्श भारतीय समाज की परिकल्पना रही होगी। इन चित्रों की शुरुआत मोहनजोदड़ो से होती है, फिर वैदिक काल, महाकाव्य काल लंका पर प्रभु राम की विजय, गीता का उपदेश देते श्री कृष्ण, भगवान बुद्ध, महावीर, अशोक का बौद्ध धर्म का प्रचार, (मौर्यकाल), गुप्तवंश की कला पर केंद्रित हनुमानजी के दृश्य हैं। विक्रमादित्य का दरबार, नालंदा विश्वविद्यालय, उड़िया मूर्तिकला में नटराज की प्रतिमा, भागीरथ की तपस्या से गंगा का अवतरण, मुगलकाल में अकबर का दरबार, शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह जी, टीपू सुल्तान, महारानी लक्ष्मीबाई, गांधीजी का दांडी मार्च और नोआखली में दंगा पीड़ितों के बीच का चित्र, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, हिमालय, रेगिस्तान और महासागर के कुल 22 दृश्य शामिल हैं। इन सभी चित्रों के जरिये भारत की महान परम्परा की कहानी बयां की गई है।

भारत के लोकाचार और जीवन मूल्यों का गणराज्यीय स्वरूप में प्रतिनिधित्व देने के लिये नन्दलाल बोस से बनवाया गया था। इन चित्रों के जीवन सन्देश को संविधान की इबारत के जरिये शासन और सियासत के अभीष्ट निर्धारित किये गए। सवाल यह है कि इन्हीं 22 चित्रों में नन्दलाल बोस ने रंग क्यों भरा है? इसका बहुत ही सीधा जवाब है। ये चित्र भारत की महान सांस्कृतिक विरासत के ठोस आधार हैं। ये हमारी अस्मिता के प्रमाणिक दस्तावेज हैं। जिनके साथ हर भारतवासी एक तरह का रागात्मक अनुराग जन्मना महसूस करता है। राम, कृष्ण, हनुमान, गीता, बुद्ध, महावीर, गुरु गोविंद सिंह जी नालंदा असल में हजारों साल से भारतीय लोकजीवन के दिग्दर्शक हैं। जाहिर है संविधान की मूल रचना में इन्हें जोड़ने के पीछे यही सोच थी कि भारतीय गणराज्य की विकास यात्रा इन प्रतीकों के आलोक में ही आगे बढ़ेगी।

जिन राम, कृष्ण, हनुमान, शिवाजी को शासन के स्तर पर सेक्युलरिज्म के शोर में अछूत मान लिया गया क्या वे संविधान निर्माताओं के लिये भी अश्पृश्य थे? क्या राम की मर्यादा, कृष्णा का गीता ज्ञान, हनुमान की निष्ठा, बोस की वीरता, गुरुकुल की शैक्षणिक व्यवस्था, गांधी का रामराज्य, अकबर का सौहार्द, बुद्ध की करुणा, महावीर की शीलता, गुरुगोविंद सिंह जी का बलिदान, टीपू और लक्ष्मीबाई के शौर्य का अक्स भारत के साथ समवेत होने से हमारी आधुनिक गणतंत्रीय व्यवस्था में कोई ग्रहण लग जाता है? हमारे पूर्वजों ने तो ऐसा नहीं माना इसीलिए मूल संविधान में इन सभी प्रतीकों का समावेश किया है। वह भी नेहरू जी के आग्रह पर। असल में भारत कोई जमीन पर उकेरी गई या जीती गई या समझौते से बनाई गई भौगोलिक सरंचना मात्र नहीं है, यह एक जीवंत सभ्यता है। जो सृष्टि के सर्जन के समानांतर चल रही है।

26 जनवरी 1950 को जिस संविधान विलेख को लागू किया गया असल में वह परम्परा और आधुनिक भारत के सुमेलन का उद्घोष था। लेकिन कालान्तर में यह धारणा मजबूत हुई कि आधुनिक गणतंत्रीय भारत का आशय सिर्फ पश्चिमी नकल, परंपरागत भारत के विसर्जन के साथ हिन्दू जीवन शैली को अपमानित करने में ही है। इसी बुनियाद पर भारत के शासन तंत्र को बढ़ाने की कोशिशें की गई। जबकि यह भुला दिया गया कि जिन सनातनी संस्कार से परम्परागत भारत भरा है वही आधुनिक भारत को वैश्विक स्वीकार्यता दिला सकता है। दुनिया में शांति, सहअस्तित्व, पर्यावरण संरक्षण, जैसे आज के ज्वलंत संकटों का समाधान आखिर किस सभ्यता और सेक्युलरिज्म के पास है? सिवाय हमारे उन आदर्शों के पास जिन्हें आधुनिक लोग पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं।

हमें यह याद रखना चाहिये कि जबतक परम्परागत सभ्यता की व्याप्ति सशक्त नहीं होगी, हम दुनिया में अपनी वास्तविक हैसियत हासिल नहीं कर सकते हैं। दुर्भाग्य से इसी आधार को शिथिल करने में एक बड़ा वर्ग लगा हुआ है। हमारे पूर्वजों के पास अद्भुत दिव्यदर्शन था इसलिए उन्होंने भारत को धर्मनिरपेक्ष नहीं बनाया बल्कि धर्मचित्रों को आगे रखकर लोककल्याण के नैतिक निर्देश स्थापित किये। इसे समझने के लिये भारत की संसद के द्वार पर उकेरी गई पंक्ति देखिये-"लोक देवेंरपत्राणर्नु
पश्येम त्वं व्यं वेरा"
मतलब लोगों के कल्याण का मार्ग खोल दो उन्हें बेहतरीन सम्प्रभुता का मार्ग दिखाओ।
संसद के सेंट्रल हॉल के द्वार पर लिखा है-`अयं निज:परावेति गणना लघुचेतसाम
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम।'
भारत सरकार का ध्येय वाक्य-`सत्यमेव जयते' है। इन उद्घोष में सम्पूर्ण मानव के कल्याण और सद्गुणों की चर्चा है इसलिए संविधान निर्माताओं की गहरी अंतर्दृष्टि को हमें समझना होगा। आशा कीजिये आने वाले भारत में नन्दलाल बोस के उकेरे गए चित्र आमजन और नेतृत्व को अनुप्राणित और आत्मप्रेरित करते रहेंगे। एक भारत श्रेष्ठ भारत के निर्माण के एकमात्र उत्प्रेरक होंगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)